मासिक पत्रिका Dictation #01 | REPUBLIC STENO

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Hindi Translation
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मासिक पत्रिका )



माननीय सदस्यों, भारत में हिंदी के अलावा बहुत सारी भाषाएं प्रयोग में लाई जाती हैं। ये सभी भाषाएं हमारे लिए आदरणीय हैं। इन सब भाषाओं ने हिंदी के विकास में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में बहुत योगदान किया है। भारत के संविधान में काफी सोच-विचार के बाद हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। हिंदी भारतीय सभ्यता संस्कृति और गौरव को सहज रूप में अभिव्यक्त करती आई है। यही साधु-संतों के प्रवचन जीवन-दर्शन, आदर्श और मान्यताओं की सशक्त वाहिका रही है, और है।




          राष्ट्रीय भावना के प्रचार-प्रसार और जनजागरण का सशक्त माध्यम रही है हिंदी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि गैर-हिंदीभाषी नेताओं ने भी क्रांति और चेतना के लिए हिंदी का खुलकर प्रयोग किया है चाहे वे बाल गंगाधर तिलक रहे हों या नेताजी सुभाष, महात्मा गांधी रहे हों या वल्लभ भाई पटेल इन्होंने हिंदी के माध्यम से ही लोगों का मन जीत कर उनमें एक नए उत्साह का संचार किया। इस तरह हम देखते हैं कि अपने देश में जन-मानस में पैठ करने के लिए हिंदी नितांत आवश्यक है। साथ ही संविधान में भी यह व्यवस्था की गई है कि संघ सरकार का कामकाज राजभाषा हिंदी में हो। लेकिन दुख की बात है कि आज संवैधानिक व्यवस्था, सरकार और हिंदी की स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रयास के बावजूद सरकारी कामकाज हिंदी में नहीं हो पा रहा है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को कुछ बढ़ावा अवश्य मिला है, लेकिन बढ़ावे की गति बहुत धीमी है। सरकार ने सभी सरकारी कार्यालयों, उपक्रमों, संगठनों निकायों में हिंदी टाइपिंग मशीन, कम्प्यूटर, हिंदी प्रशिक्षक, प्रशिक्षण सहायक सामग्री प्रोत्साहन, पुरस्कार आदि की व्यापक व्यवस्था की है, लेकिन देखा जा रहा है कि इस सबके बावजूद हिंदी के प्रयोग की स्थिति बहुत संतोषजनक एवं उत्साहवर्धक नहीं है। आखिर इसके क्या कारण हैं? विश्लेषणात्मक दृष्टि से यदि देखा जाए तो संक्षेप में निम्नलिखित बातें सामने आती हैं-

सामान्यतः यह देखा जाता है कि हिंदी के प्रयोग के लिए हम मानसिक रूप से तैयार नहीं होते। हम आपस में टेलीफोन पर बाते भले ही हिंदी में करें, अपने परिवार में निज जनों से बात भले ही हिंदी में करें, संबंधियों मित्रों को पत्र भले ही हिंदी में लिखे, लेकिन दफ्तर में लिखेंगे अंग्रेजी में ही। खासकर उच्च अधिकारी तो हिंदी में लिखना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ मानते हैं, भले ही वे अच्छी खासी हिंदी जाते हों। कहीं-कहीं इसके अपवाद भी अवश्य हैं, लेकिन अधिकांश उच्च अधिकारी हिंदी को केवल छोटे कर्मचारियों की ही भाषा मानते हैं। यह एक बिल्कुल गलत धारणा है। भाषा तो विचाराभिव्यक्ति का साधन है, उसका संबंध व्यक्ति के स्तर से नहीं। अतः यह नितांत आवश्यक है कि हिंदी को सभी स्तरों पर मन से जोड़ा जाए।



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