Rajasthan High Court Dictation #13 [ 80 Wpm ] [ REPUBLIC STENOGRAPHY ]
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जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन // और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया // हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी // से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का कोई सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद // में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही // केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा नहीं किया // जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है।
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या तो देखने // की प्राकृतिक त्रुटियों से या विलम्ब की वजह से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। // लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित // हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का // कोई सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे // क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा // नहीं किया जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है।
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या तो देखने की प्राकृतिक ़त्रुटियों से या विलम्ब की वजह // से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह // नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से // तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का कोई सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो // न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि // नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है।
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या // तो देखने की प्राकृतिक ़त्रुटियों से या विलम्ब की वजह से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
राष्ट्रीय भावना के प्रचार-प्रसार और जनजागरण का सशक्त माध्यम रही है हिंदी। इतिहास इस // बात का साक्षी है कि गैर-हिंदीभाषी नेताओं ने भी क्रांति और चेतना के लिए हिंदी का खुलकर प्रयोग किया है चाहे वे बाल गंगाधर तिलक रहे हों या नेताजी सुभाष, महात्मा गांधी रहे हों या वल्लभ भाई पटेल, इन्होंने हिंदी के माध्यम से ही लोगों का मन जीत कर उनमें एक नए उत्साह का संचार किया। इस तरह हम देखते हैं कि अपने देश में जन-मानस में पैठ करने के लिए हिंदी नितांत आवश्यक है। साथ ही संविधान में भी यह व्यवस्था की गई है कि संघ सरकार का कामकाज राजभाषा हिंदी में हो। लेकिन दुख की बात है कि // आज संवैधानिक व्यवस्था, सरकार और हिंदी की स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रयास के बावजूद सरकारी कामकाज हिंदी में नहीं हो पा रहा है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को कुछ बढ़ावा अवश्य मिला है, लेकिन बढ़ावे की गति बहुत धीमी है। सरकार ने सभी सरकारी कार्यालयों उपक्रमों संगठनों निकायों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए साधन-स्वरूप हिंदी अधिकारी, अनुवादक, टंकक, हिंदी टाइपिंग मशीन कंप्यूटर, हिंदी प्रशिक्षक प्रशिक्षण सहायक सामग्री प्रोत्साहनपुरस्कार आदि की व्यापक व्यवस्था की है, लेकिन देखा जा रहा है कि इस सबके बावजूद हिंदी के प्रयोग की स्थिति बहुत संतोषजनक // एवं उत्साहवर्धक नहीं है। आखिर इसके क्या कारण है? विश्लेषणात्मक दृष्टि से यदि देखा जाए तो संक्षेप में निम्नलिखित बातें सामने आती हैंः
सामान्यत$ यह देखा जाता है कि हिंदी के प्रयोग के लिए हम मानसिक रूप से तैयार नहीं होते। हम आपस में टेलीफोन पर बात भेले ही हिंदी में करें, अपने परिवार में निज जनों से बात भले ही हिंदी में करें, संबंधियों मत्रों को पत्र भले ही हिंदी में लिखें, लेकिन दफ्तर में लिखेंगे अंग्रेजी में ही। खासकर उच्च अधिकारी तो हिंदी में लिखना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ मानते हैं, भले ही वे अच्छी खासी हिंदी जानते // हों। कहीं-कहीं इसके अपवाद भी अवश्य हैं, लेकिन अधिकांश उच्च अधिकारी हिंदी को केवल छोटे कर्मचारियों की ही भाषा मानते हैं। यह एक बिल्कुल गलत धारणा है। भाषा तो तवचाराभिव्यक्ति का साधन है, उसका संबंध व्यक्ति के स्तर से नहीं। अतः यह निंतात आवश्यक है कि हिंदी को सभी स्तरों पर मन से जोड़ा जाए।
जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त // की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों // तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का कोई // सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा // ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है। //
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या तो देखने की प्राकृतिक त्रुटियों से या विलम्ब की वजह से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
[ -- Rajasthan High Court Dictation -- ]
70 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, अक्सर यह देखा जाता है कि प्रतिवाद की जाँच के दौरान पिछले बयानातों को बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है ताकि अभियोग को ज्यादा मजबूत रखा जाये। लेकिन इसके यह माने नहीं कि एक बात को साक्ष्य में झूठा रखा जावे तो पूरा वाद शुरू से अन्त तक झूठा बन जावे बल्कि न्यायालय के लिए यह उचित है कि वाक्या परिस्थितियों को देखते हुए वह सावधानी से साक्ष्य की आलोचना करे। // वह उस साक्ष्य को चुन जो कि विश्वसनीय प्रतीत होते हैं और जिनका समर्थन सत्य साक्ष्य से होता है। यह सूत्र ‘फाइल मे होता है जो कि पूर्ण रूप से झूठ में न एक कानून का नियम है और न ही एक अभ्यास का नियम है। यह एक सुस्थित नियम है। इस देश की दशा को देखते हुए नहीं है और इस तरह यह न्यायालय का एक कत्र्तव्य है कि // जब साक्षीगण का साक्ष्य यदि अविश्वसनीय पाये किसी तथ्यों के बावत हो तो उनके बाकी साक्ष्य की सावधानी से जाँच करे और यदि वह वाक्या विश्वसनीय पाया जावे व अभियोग का अधार सही पाया जाय तब न्यायालय को चाहिए कि अभियोग को सही माने उस हद तक जितना कि ठीक व विश्वसनीय है।जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन // और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया // हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी // से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का कोई सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद // में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही // केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा नहीं किया // जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है।
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या तो देखने // की प्राकृतिक त्रुटियों से या विलम्ब की वजह से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
80 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, अक्सर यह देखा जाता है कि प्रतिवाद की जाँच के दौरान पिछले बयानातों को बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है ताकि अभियोग को ज्यादा मजबूत रखा जाये। लेकिन इसके यह माने नहीं कि एक बात को साक्ष्य में झूठा रखा जावे तो पूरा वाद शुरू से अन्त तक झूठा बन जावे बल्कि न्यायालय के लिए यह उचित है कि वाक्या परिस्थितियों को देखते हुए वह सावधानी से साक्ष्य की आलोचना करे। वह उस साक्ष्य को चुन जो कि विश्वसनीय प्रतीत // होते हैं और जिनका समर्थन सत्य साक्ष्य से होता है। यह सूत्र ‘फाइल मे होता है जो कि पूर्ण रूप से झूठ में न एक कानून का नियम है और न ही एक अभ्यास का नियम है। यह एक सुस्थित नियम है। इस देश की दशा को देखते हुए नहीं है और इस तरह यह न्यायालय का एक कर्तव्य है कि जब साक्षीगण का साक्ष्य यदि अविश्वसनीय पाये किसी तथ्यों के बावत हो तो उनके बाकी साक्ष्य की सावधानी से // जाँच करे और यदि वह वाक्या विश्वसनीय पाया जावे व अभियोग का अधार सही पाया जाय तब न्यायालय को चाहिए कि अभियोग को सही माने उस हद तक जितना कि ठीक व विश्वसनीय है।जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। // लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित // हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का // कोई सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे // क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा // नहीं किया जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है।
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या तो देखने की प्राकृतिक ़त्रुटियों से या विलम्ब की वजह // से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
90 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, अक्सर यह देखा जाता है कि प्रतिवाद की जाँच के दौरान पिछले बयानातों को बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है ताकि अभियोग को ज्यादा मजबूत रखा जाये। लेकिन इसके यह माने नहीं कि एक बात को साक्ष्य में झूठा रखा जावे तो पूरा वाद शुरू से अन्त तक झूठा बन जावे बल्कि न्यायालय के लिए यह उचित है कि वाक्या परिस्थितियों को देखते हुए वह सावधानी से साक्ष्य की आलोचना करे। वह उस साक्ष्य को चुन जो कि विश्वसनीय प्रतीत होते हैं और जिनका समर्थन सत्य साक्ष्य से होता है। // यह सूत्र ‘फाइल मे होता है जो कि पूर्ण रूप से झूठ में न एक कानून का नियम है और न ही एक अभ्यास का नियम है। यह एक सुस्थित नियम है। इस देश की दशा को देखते हुए नहीं है और इस तरह यह न्यायालय का एक कर्तव्य है कि जब साक्षीगण का साक्ष्य यदि अविश्वसनीय पाये किसी तथ्यों के बावत हो तो उनके बाकी साक्ष्य की सावधानी से जाँच करे और यदि वह वाक्या विश्वसनीय पाया जावे व अभियोग का अधार सही पाया जाय तब न्यायालय को चाहिए // कि अभियोग को सही माने उस हद तक जितना कि ठीक व विश्वसनीय है।जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह // नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से // तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का कोई सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो // न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि // नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है।
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या // तो देखने की प्राकृतिक ़त्रुटियों से या विलम्ब की वजह से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
100 शब्द प्रतिमिनट
माननीय सदस्यों, भारत में हिंदी के अलावा बहुत सारी भाषाएं प्रयोग में लाई जाती हैं। ये सभी भाषाएं हमारे लिए आदरणीय हैं। इन सब भाषाओं ने हिंदी के विकास में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में बहुत योगदान किया है। भारत के संविधान में काफी सोच-विचार के बाद हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। हिंदी भारतीय सभ्यता, संस्कृति और गौरव को सहज रूप से अभिव्यक्त करती आई है। यही साधु-संतों के प्रवचन, जीवन-दर्शन, आदर्श और मान्यताओं की सशक्त वाहिका रही है, और है।राष्ट्रीय भावना के प्रचार-प्रसार और जनजागरण का सशक्त माध्यम रही है हिंदी। इतिहास इस // बात का साक्षी है कि गैर-हिंदीभाषी नेताओं ने भी क्रांति और चेतना के लिए हिंदी का खुलकर प्रयोग किया है चाहे वे बाल गंगाधर तिलक रहे हों या नेताजी सुभाष, महात्मा गांधी रहे हों या वल्लभ भाई पटेल, इन्होंने हिंदी के माध्यम से ही लोगों का मन जीत कर उनमें एक नए उत्साह का संचार किया। इस तरह हम देखते हैं कि अपने देश में जन-मानस में पैठ करने के लिए हिंदी नितांत आवश्यक है। साथ ही संविधान में भी यह व्यवस्था की गई है कि संघ सरकार का कामकाज राजभाषा हिंदी में हो। लेकिन दुख की बात है कि // आज संवैधानिक व्यवस्था, सरकार और हिंदी की स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रयास के बावजूद सरकारी कामकाज हिंदी में नहीं हो पा रहा है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को कुछ बढ़ावा अवश्य मिला है, लेकिन बढ़ावे की गति बहुत धीमी है। सरकार ने सभी सरकारी कार्यालयों उपक्रमों संगठनों निकायों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए साधन-स्वरूप हिंदी अधिकारी, अनुवादक, टंकक, हिंदी टाइपिंग मशीन कंप्यूटर, हिंदी प्रशिक्षक प्रशिक्षण सहायक सामग्री प्रोत्साहनपुरस्कार आदि की व्यापक व्यवस्था की है, लेकिन देखा जा रहा है कि इस सबके बावजूद हिंदी के प्रयोग की स्थिति बहुत संतोषजनक // एवं उत्साहवर्धक नहीं है। आखिर इसके क्या कारण है? विश्लेषणात्मक दृष्टि से यदि देखा जाए तो संक्षेप में निम्नलिखित बातें सामने आती हैंः
सामान्यत$ यह देखा जाता है कि हिंदी के प्रयोग के लिए हम मानसिक रूप से तैयार नहीं होते। हम आपस में टेलीफोन पर बात भेले ही हिंदी में करें, अपने परिवार में निज जनों से बात भले ही हिंदी में करें, संबंधियों मत्रों को पत्र भले ही हिंदी में लिखें, लेकिन दफ्तर में लिखेंगे अंग्रेजी में ही। खासकर उच्च अधिकारी तो हिंदी में लिखना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ मानते हैं, भले ही वे अच्छी खासी हिंदी जानते // हों। कहीं-कहीं इसके अपवाद भी अवश्य हैं, लेकिन अधिकांश उच्च अधिकारी हिंदी को केवल छोटे कर्मचारियों की ही भाषा मानते हैं। यह एक बिल्कुल गलत धारणा है। भाषा तो तवचाराभिव्यक्ति का साधन है, उसका संबंध व्यक्ति के स्तर से नहीं। अतः यह निंतात आवश्यक है कि हिंदी को सभी स्तरों पर मन से जोड़ा जाए।
120 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, अक्सर यह देखा जाता है कि प्रतिवाद की जाँच के दौरान पिछले बयानातों को बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है ताकि अभियोग को ज्यादा मजबूत रखा जाये। लेकिन इसके यह माने नहीं कि एक बात को साक्ष्य में झूठा रखा जावे तो पूरा वाद शुरू से अन्त तक झूठा बन जावे बल्कि न्यायालय के लिए यह उचित है कि वाक्या परिस्थितियों को देखते हुए वह सावधानी से साक्ष्य की आलोचना करे। वह उस साक्ष्य को चुन जो कि विश्वसनीय प्रतीत होते हैं और जिनका समर्थन सत्य साक्ष्य से होता है।यह सूत्र ‘फाइल मे होता है जो कि पूर्ण रूप से // झूठ में न एक कानून का नियम है और न ही एक अभ्यास का नियम है। यह एक सुस्थित नियम है। इस देश की दशा को देखते हुए नहीं है और इस तरह यह न्यायालय का एक कर्तव्य है कि जब साक्षीगण का साक्ष्य यदि अविश्वसनीय पाये किसी तथ्यों के बावत हो तो उनके बाकी साक्ष्य की सावधानी से जाँच करे और यदि वह वाक्या विश्वसनीय पाया जावे व अभियोग का अधार सही पाया जाय तब न्यायालय को चाहिए कि अभियोग को सही माने उस हद तक जितना कि ठीक व विश्वसनीय है।जहाँ अभियोजन पक्ष के गवाहान सात अभियुक्त // की चोटों का कोई जवाब नहीं देते जबकि चोटें संगीन और जाहिर हैं और गवाहों के छुपाने से छुप नहीं सकतीं और जो मृतक अस्पताल लाया गया उस समय डाॅक्टर उन अभियुक्तगण की चोटों का इलाज कर रहा था। लेकिन गवाहन पूछने पर साफ इनकार करते हैं तो अभियोग को अविश्वसनीय पाया गया। यदि साक्षीगण को बहुत गम्भीर चोटें आई हैं तो उनकी मौजूदगी कथित घटना के समय संदेह नहीं की जा सकती और न उन चोटों को स्वयं बनाया हुई कहा जा सकता है। जहाँ यह स्वीकृत है कि दोनों फरीक में रंजिस पहले से मौजूद है और दोनों // तरफ चोटें आना भी स्वीकृत है तो न्यायालय को उन तथ्यों को देखना चाहिए जो कि साक्ष्य से साबित हो चुके हैं। यदि घूस प्राप्त करने के प्रतिवाद में नोट में रंग है और अभियुक्त की कमीज के जेब से निकलते हैं और यदि बाद में कमीज का जेब पानी से धोया जाता है न कि सोडियम कार्बोनेट से तो यह तथ्य कि पानी में कोई रंग नहीं बदला तो इससे यह झुठा नहीं होगा कि नोट अभियुक्त ने अपने जेब में रखा। जहाँ कोई पूर्व रंजिस दोनों फरीक में नहीं है वहाँ पर अभियुक्त को झूठा फंसाने का कोई // सवाल नहीं उठता राजाराम बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 1980 यदि कोई साक्षी पहले अभियोग की तरफ से दो अन्य प्रतिवाद में साक्षी था इस कारणवश उसकी शहादत रद्द नहीं की जावेगी।
यदि अभियुक्त यह तथ्य जो कि निश्चित साक्ष्य द्वारा साबित किये गये हैं इनकार करता है तो न्यायालय उस पर अभियुक्त के विरूद्ध नतीजा निकाल सकता है। अपील न्यायालय को चाहिए कि वह जाँच न्यायालय की राय में आमतौर पर साक्ष्य की विश्वसनीयता के बावत दखल न दे क्योंकि जाँच में केवल साक्षीगण के व्यवहार को जानता है वही केवल इसका गुण जान सकता है कि किसी ढंग से अथवा // ईमानदारी से या शक से युक्त या बहुत सोच-समझ कर या लापरवाही से सवालों के जवाब दिये गये और वही केवल एक विश्वसनीय राय कायम कर सके हैं कि गवाह जिरह के दौरान विश्वास पात्र बना कि नहीं। यदि कोई साक्षी अभियोग के लिए बहुत महत्व रखता है वह जानबूझकर झुठ बोलता है, उस पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता न ही अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है। यदि किसी साक्षी के बयान के बाद जिरह नहीं की जाती अथवा कोई दूसरा वर्णन नहीं किया जाता तो नतीजा यह निकलता है कि साक्षी दूसरा पक्ष तस्लीम करता है। //
महोदय, साक्षीगण के बयानों में हमेशा कुछ प्राकृतिक फर्क पाया जावेगा चाहे वे कितने भी सच्चे व सत्यवादी क्यों न हों यह फर्क प्रायः पैदा होते या तो देखने की प्राकृतिक त्रुटियों से या विलम्ब की वजह से याददाश्त की त्रुटियों से अथवा दिमागी कौतूहल जो भय व सदमे से उत्पन्न होता है।
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