Rajasthan High Court Steno Test 03 ( 70 WPM ) [ REPUBLIC STENOGRAPHY ]
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[ -- Rajasthan High Court Steno Test 03 -- ]
70 शब्द प्रति मिनट
महोदय, क्षेत्राधिकार से तात्पर्य है न्यायालयों की वह शक्ति जिसके अंतर्गत वह वादों, अपीलों एवं आवेदनों को ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं। सिविल न्यायालयों को निम्नलिखित 4 प्रकार के क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं - स्थानीय या प्रादेशिक अधिकारिता, विषयवस्तु संबंधी अधिकारिता, धन संबंधी अधिकारिता, प्रारंभिक एवं अपीलीय अधिकारिता। सिविल जज एवं लघुवाद न्यायालयों को मात्र प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है। जबकि उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला न्यायालयों या अपर जिला न्यायालयों और // सिविल जज सीनियर डिवीजन को प्रारंभिक एवं अपीलीय दोनों प्रकार की अधिकारिता प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत प्रारंभिक तक अनुच्छेद 132 एवं 133 के अंतर्गत अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है। क्षेत्राधिकार के अभाव में किसी न्यायालय द्वारा विचारित एवं निर्णीत मामले शून्य होते हैं। धारा 9 में यह उपबंधित किया गया है कि न्यायालयों को इसमें अन्तर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए सिविल प्रकृति के // सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी सिवाय उनके जिनका ऐसे न्यायालयों द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त रूप से वर्जित किया गया है।
सिविल प्रकृति के वाद कौन हैं इसे स्पष्टीकरण में बताया गया है ऐसे वाद जिनमें सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, यद्यपि कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलम्बित है, सिविल प्रकृति के वाद हैं, पद के साथ // शुल्क या उसका किसी विशेष स्थान से संलग्न होना सिविल प्रक्रिया के वाद के लिए आवश्यक नहीं है। न्यायिक विनिश्चयों के आधार पर निम्न वाद सिविल प्रकृति के वाद माने गये हैं - पूजा का अधिकार, जुलूस निकालने का अधिकार मृतक को दफनाने का अधिकार, पेटेन्ट कापीराइट ट्रेडमार्क आदि अमूर्त सम्पत्ति संबंधी वाद, संविदा भंग की दशा में नुकसानी निर्धारण से संबंधित वाद, मत देने का अधिकार, संविदा के विनिर्दिष्ट // पालन व्यादेश एवं घोषणात्मक डिक्री संबंधी वाद, विवाह-विच्छेद संबंधी वाद, राजर्मा के उपयोग संबंधी अधिकार, भागीदारी संबंधी वाद, लेखा संबंधी वाद, आरक्षण संबंधी वाद, जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद, जाति से निष्कासन संबंधी वाद आदि। श्री रामानुज बनाम श्री रंगा रामानुज जी एआईआर 1961 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि विशुद्ध धार्मिक सम्मान एवं विशेषाधिकार की घोषणा प्राप्त करने का अधिकार संबंधीवाद सिविल प्रकृति का // वाद नहीं है।
संहिता की धारा 10 के अंतर्गत विचाराधीन न्यायालय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इसका उद्देश्य समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले दो न्यायालयों को एक ही समय में एक ही विवादग्रस्त विषय पर दो समानान्तर वादों के परीक्षण को रोकना है। धारा 10 पश्चातवर्ती वाद के विचारण को रोकती है न कि वाद को संस्थित करने से रोकती है। धारा 10 के प्रवर्तन के लिए निम्न शर्तों का // पूरा होना आवश्यक है - दो वाद दो समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों में विचाराधीन हो। पश्चात्वर्ती वाद में भी विधिक विषय पूर्ववर्ती वाद के समान हो। धारा 10 के अंतर्गत पारित स्थगन आदेश के विरूद्ध अपील नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा आदेश न तो डिक्री की श्रेणी में आता है और न ही अपील योग्य आदेशों की श्रेणी में आता है किन्तु पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है। धारा // 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार विदेशी न्यायालय में किसी वाद के लम्बित रहने की अवधि में उसी वाद हेतुक के आधार पर किसी वाद के विचारण का अधिकार भारतीय न्यायालयों को प्राप्त है। यहां धारा 10 लागू नहीं होगी।
सिविल प्रकृति के वाद कौन हैं इसे स्पष्टीकरण में बताया गया है ऐसे वाद जिनमें सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, यद्यपि कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलम्बित है, सिविल प्रकृति के वाद हैं, पद के साथ // शुल्क या उसका किसी विशेष स्थान से संलग्न होना सिविल प्रक्रिया के वाद के लिए आवश्यक नहीं है। न्यायिक विनिश्चयों के आधार पर निम्न वाद सिविल प्रकृति के वाद माने गये हैं - पूजा का अधिकार, जुलूस निकालने का अधिकार मृतक को दफनाने का अधिकार, पेटेन्ट कापीराइट ट्रेडमार्क आदि अमूर्त सम्पत्ति संबंधी वाद, संविदा भंग की दशा में नुकसानी निर्धारण से संबंधित वाद, मत देने का अधिकार, संविदा के विनिर्दिष्ट // पालन व्यादेश एवं घोषणात्मक डिक्री संबंधी वाद, विवाह-विच्छेद संबंधी वाद, राजर्मा के उपयोग संबंधी अधिकार, भागीदारी संबंधी वाद, लेखा संबंधी वाद, आरक्षण संबंधी वाद, जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद, जाति से निष्कासन संबंधी वाद आदि। श्री रामानुज बनाम श्री रंगा रामानुज जी एआईआर 1961 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि विशुद्ध धार्मिक सम्मान एवं विशेषाधिकार की घोषणा प्राप्त करने का अधिकार संबंधीवाद सिविल प्रकृति का // वाद नहीं है।
संहिता की धारा 10 के अंतर्गत विचाराधीन न्यायालय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इसका उद्देश्य समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले दो न्यायालयों को एक ही समय में एक ही विवादग्रस्त विषय पर दो समानान्तर वादों के परीक्षण को रोकना है। धारा 10 पश्चातवर्ती वाद के विचारण को रोकती है न कि वाद को संस्थित करने से रोकती है। धारा 10 के प्रवर्तन के लिए निम्न शर्तों का // पूरा होना आवश्यक है - दो वाद दो समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों में विचाराधीन हो। पश्चात्वर्ती वाद में भी विधिक विषय पूर्ववर्ती वाद के समान हो। धारा 10 के अंतर्गत पारित स्थगन आदेश के विरूद्ध अपील नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा आदेश न तो डिक्री की श्रेणी में आता है और न ही अपील योग्य आदेशों की श्रेणी में आता है किन्तु पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है। धारा // 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार विदेशी न्यायालय में किसी वाद के लम्बित रहने की अवधि में उसी वाद हेतुक के आधार पर किसी वाद के विचारण का अधिकार भारतीय न्यायालयों को प्राप्त है। यहां धारा 10 लागू नहीं होगी।
80 शब्द प्रति मिनट
महोदय, क्षेत्राधिकार से तात्पर्य है न्यायालयों की वह शक्ति जिसके अंतर्गत वह वादों, अपीलों एवं आवेदनों को ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं। सिविल न्यायालयों को निम्नलिखित 4 प्रकार के क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं - स्थानीय या प्रादेशिक अधिकारिता, विषयवस्तु संबंधी अधिकारिता, धन संबंधी अधिकारिता, प्रारंभिक एवं अपीलीय अधिकारिता। सिविल जज एवं लघुवाद न्यायालयों को मात्र प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है। जबकि उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला न्यायालयों या अपर जिला न्यायालयों और सिविल जज सीनियर डिवीजन को प्रारंभिक एवं अपीलीय दोनों प्रकार // की अधिकारिता प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत प्रारंभिक तक अनुच्छेद 132 एवं 133 के अंतर्गत अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है। क्षेत्राधिकार के अभाव में किसी न्यायालय द्वारा विचारित एवं निर्णीत मामले शून्य होते हैं। धारा 9 में यह उपबंधित किया गया है कि न्यायालयों को इसमें अन्तर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी सिवाय उनके जिनका ऐसे न्यायालयों द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त रूप से वर्जित किया गया है। //
सिविल प्रकृति के वाद कौन हैं इसे स्पष्टीकरण में बताया गया है ऐसे वाद जिनमें सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, यद्यपि कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलम्बित है, सिविल प्रकृति के वाद हैं, पद के साथ शुल्क या उसका किसी विशेष स्थान से संलग्न होना सिविल प्रक्रिया के वाद के लिए आवश्यक नहीं है। न्यायिक विनिश्चयों के आधार पर निम्न वाद सिविल प्रकृति के वाद माने गये // हैं - पूजा का अधिकार, जुलूस निकालने का अधिकार मृतक को दफनाने का अधिकार, पेटेन्ट कापीराइट ट्रेडमार्क आदि अमूर्त सम्पत्ति संबंधी वाद, संविदा भंग की दशा में नुकसानी निर्धारण से संबंधित वाद, मत देने का अधिकार, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन व्यादेश एवं घोषणात्मक डिक्री संबंधी वाद, विवाह-विच्छेद संबंधी वाद, राजर्मा के उपयोग संबंधी अधिकार, भागीदारी संबंधी वाद, लेखा संबंधी वाद, आरक्षण संबंधी वाद, जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद, जाति से निष्कासन संबंधी वाद आदि। श्री रामानुज बनाम श्री रंगा // रामानुज जी एआईआर 1961 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि विशुद्ध धार्मिक सम्मान एवं विशेषाधिकार की घोषणा प्राप्त करने का अधिकार संबंधीवाद सिविल प्रकृति का वाद नहीं है।
संहिता की धारा 10 के अंतर्गत विचाराधीन न्यायालय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इसका उद्देश्य समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले दो न्यायालयों को एक ही समय में एक ही विवादग्रस्त विषय पर दो समानान्तर वादों के परीक्षण को रोकना है। धारा 10 पश्चातवर्ती वाद के विचारण को रोकती है // न कि वाद को संस्थित करने से रोकती है। धारा 10 के प्रवर्तन के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है - दो वाद दो समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों में विचाराधीन हो। पश्चात्वर्ती वाद में भी विधिक विषय पूर्ववर्ती वाद के समान हो। धारा 10 के अंतर्गत पारित स्थगन आदेश के विरूद्ध अपील नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा आदेश न तो डिक्री की श्रेणी में आता है और न ही अपील योग्य आदेशों की श्रेणी में आता है किन्तु // पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है। धारा 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार विदेशी न्यायालय में किसी वाद के लम्बित रहने की अवधि में उसी वाद हेतुक के आधार पर किसी वाद के विचारण का अधिकार भारतीय न्यायालयों को प्राप्त है। यहां धारा 10 लागू नहीं होगी।
सिविल प्रकृति के वाद कौन हैं इसे स्पष्टीकरण में बताया गया है ऐसे वाद जिनमें सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, यद्यपि कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से // अवलम्बित है, सिविल प्रकृति के वाद हैं, पद के साथ शुल्क या उसका किसी विशेष स्थान से संलग्न होना सिविल प्रक्रिया के वाद के लिए आवश्यक नहीं है। न्यायिक विनिश्चयों के आधार पर निम्न वाद सिविल प्रकृति के वाद माने गये हैं - पूजा का अधिकार, जुलूस निकालने का अधिकार मृतक को दफनाने का अधिकार, पेटेन्ट कापीराइट ट्रेडमार्क आदि अमूर्त सम्पत्ति संबंधी वाद, संविदा भंग की दशा में नुकसानी निर्धारण से संबंधित वाद, मत देने का अधिकार, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन व्यादेश एवं घोषणात्मक डिक्री संबंधी वाद, विवाह-विच्छेद संबंधी वाद, राजर्मा के उपयोग संबंधी अधिकार, भागीदारी संबंधी वाद, लेखा संबंधी // वाद, आरक्षण संबंधी वाद, जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद, जाति से निष्कासन संबंधी वाद आदि। श्री रामानुज बनाम श्री रंगा रामानुज जी एआईआर 1961 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि विशुद्ध धार्मिक सम्मान एवं विशेषाधिकार की घोषणा प्राप्त करने का अधिकार संबंधीवाद सिविल प्रकृति का वाद नहीं है।
संहिता की धारा 10 के अंतर्गत विचाराधीन न्यायालय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इसका उद्देश्य समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले दो न्यायालयों को एक ही समय में एक ही विवादग्रस्त विषय पर दो समानान्तर वादों के परीक्षण को रोकना है। धारा 10 पश्चातवर्ती वाद के विचारण को // रोकती है न कि वाद को संस्थित करने से रोकती है। धारा 10 के प्रवर्तन के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है - दो वाद दो समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों में विचाराधीन हो। पश्चात्वर्ती वाद में भी विधिक विषय पूर्ववर्ती वाद के समान हो। धारा 10 के अंतर्गत पारित स्थगन आदेश के विरूद्ध अपील नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा आदेश न तो डिक्री की श्रेणी में आता है और न ही अपील योग्य आदेशों की श्रेणी में आता है किन्तु पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है। धारा 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार विदेशी न्यायालय में किसी वाद // के लम्बित रहने की अवधि में उसी वाद हेतुक के आधार पर किसी वाद के विचारण का अधिकार भारतीय न्यायालयों को प्राप्त है। यहां धारा 10 लागू नहीं होगी।
सिविल प्रकृति के वाद कौन हैं इसे स्पष्टीकरण में बताया गया है ऐसे वाद जिनमें सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, यद्यपि कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलम्बित है, सिविल प्रकृति के वाद हैं, पद के साथ शुल्क या उसका किसी विशेष स्थान से संलग्न होना सिविल प्रक्रिया के वाद के लिए आवश्यक नहीं है। न्यायिक विनिश्चयों के आधार पर निम्न वाद सिविल प्रकृति के वाद माने गये // हैं - पूजा का अधिकार, जुलूस निकालने का अधिकार मृतक को दफनाने का अधिकार, पेटेन्ट कापीराइट ट्रेडमार्क आदि अमूर्त सम्पत्ति संबंधी वाद, संविदा भंग की दशा में नुकसानी निर्धारण से संबंधित वाद, मत देने का अधिकार, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन व्यादेश एवं घोषणात्मक डिक्री संबंधी वाद, विवाह-विच्छेद संबंधी वाद, राजर्मा के उपयोग संबंधी अधिकार, भागीदारी संबंधी वाद, लेखा संबंधी वाद, आरक्षण संबंधी वाद, जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद, जाति से निष्कासन संबंधी वाद आदि। श्री रामानुज बनाम श्री रंगा // रामानुज जी एआईआर 1961 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि विशुद्ध धार्मिक सम्मान एवं विशेषाधिकार की घोषणा प्राप्त करने का अधिकार संबंधीवाद सिविल प्रकृति का वाद नहीं है।
संहिता की धारा 10 के अंतर्गत विचाराधीन न्यायालय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इसका उद्देश्य समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले दो न्यायालयों को एक ही समय में एक ही विवादग्रस्त विषय पर दो समानान्तर वादों के परीक्षण को रोकना है। धारा 10 पश्चातवर्ती वाद के विचारण को रोकती है // न कि वाद को संस्थित करने से रोकती है। धारा 10 के प्रवर्तन के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है - दो वाद दो समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों में विचाराधीन हो। पश्चात्वर्ती वाद में भी विधिक विषय पूर्ववर्ती वाद के समान हो। धारा 10 के अंतर्गत पारित स्थगन आदेश के विरूद्ध अपील नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा आदेश न तो डिक्री की श्रेणी में आता है और न ही अपील योग्य आदेशों की श्रेणी में आता है किन्तु // पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है। धारा 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार विदेशी न्यायालय में किसी वाद के लम्बित रहने की अवधि में उसी वाद हेतुक के आधार पर किसी वाद के विचारण का अधिकार भारतीय न्यायालयों को प्राप्त है। यहां धारा 10 लागू नहीं होगी।
100 शब्द प्रति मिनट
महोदय, क्षेत्राधिकार से तात्पर्य है न्यायालयों की वह शक्ति जिसके अंतर्गत वह वादों, अपीलों एवं आवेदनों को ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं। सिविल न्यायालयों को निम्नलिखित 4 प्रकार के क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं - स्थानीय या प्रादेशिक अधिकारिता, विषयवस्तु संबंधी अधिकारिता, धन संबंधी अधिकारिता, प्रारंभिक एवं अपीलीय अधिकारिता। सिविल जज एवं लघुवाद न्यायालयों को मात्र प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है। जबकि उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला न्यायालयों या अपर जिला न्यायालयों और सिविल जज सीनियर डिवीजन को प्रारंभिक एवं अपीलीय दोनों प्रकार की अधिकारिता प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत प्रारंभिक तक अनुच्छेद 132 एवं 133 के // अंतर्गत अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है। क्षेत्राधिकार के अभाव में किसी न्यायालय द्वारा विचारित एवं निर्णीत मामले शून्य होते हैं। धारा 9 में यह उपबंधित किया गया है कि न्यायालयों को इसमें अन्तर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी सिवाय उनके जिनका ऐसे न्यायालयों द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त रूप से वर्जित किया गया है।सिविल प्रकृति के वाद कौन हैं इसे स्पष्टीकरण में बताया गया है ऐसे वाद जिनमें सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी अधिकार प्रतिवादित है, यद्यपि कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों संबंधी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से // अवलम्बित है, सिविल प्रकृति के वाद हैं, पद के साथ शुल्क या उसका किसी विशेष स्थान से संलग्न होना सिविल प्रक्रिया के वाद के लिए आवश्यक नहीं है। न्यायिक विनिश्चयों के आधार पर निम्न वाद सिविल प्रकृति के वाद माने गये हैं - पूजा का अधिकार, जुलूस निकालने का अधिकार मृतक को दफनाने का अधिकार, पेटेन्ट कापीराइट ट्रेडमार्क आदि अमूर्त सम्पत्ति संबंधी वाद, संविदा भंग की दशा में नुकसानी निर्धारण से संबंधित वाद, मत देने का अधिकार, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन व्यादेश एवं घोषणात्मक डिक्री संबंधी वाद, विवाह-विच्छेद संबंधी वाद, राजर्मा के उपयोग संबंधी अधिकार, भागीदारी संबंधी वाद, लेखा संबंधी // वाद, आरक्षण संबंधी वाद, जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद, जाति से निष्कासन संबंधी वाद आदि। श्री रामानुज बनाम श्री रंगा रामानुज जी एआईआर 1961 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि विशुद्ध धार्मिक सम्मान एवं विशेषाधिकार की घोषणा प्राप्त करने का अधिकार संबंधीवाद सिविल प्रकृति का वाद नहीं है।
संहिता की धारा 10 के अंतर्गत विचाराधीन न्यायालय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इसका उद्देश्य समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले दो न्यायालयों को एक ही समय में एक ही विवादग्रस्त विषय पर दो समानान्तर वादों के परीक्षण को रोकना है। धारा 10 पश्चातवर्ती वाद के विचारण को // रोकती है न कि वाद को संस्थित करने से रोकती है। धारा 10 के प्रवर्तन के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है - दो वाद दो समवर्ती क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों में विचाराधीन हो। पश्चात्वर्ती वाद में भी विधिक विषय पूर्ववर्ती वाद के समान हो। धारा 10 के अंतर्गत पारित स्थगन आदेश के विरूद्ध अपील नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा आदेश न तो डिक्री की श्रेणी में आता है और न ही अपील योग्य आदेशों की श्रेणी में आता है किन्तु पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है। धारा 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार विदेशी न्यायालय में किसी वाद // के लम्बित रहने की अवधि में उसी वाद हेतुक के आधार पर किसी वाद के विचारण का अधिकार भारतीय न्यायालयों को प्राप्त है। यहां धारा 10 लागू नहीं होगी।
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