Rajasthan Hight cour Dictation #03 (80 wpm)

Rajasthan Hight cour Dictation #03 (80 wpm)




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     कागज की सघनता दुःख एवं अतृप्ति का परिणाम है, जो सदैव असत्यरूपी मृगमरीचिका, नश्वर आकर्षण का पर्याय है। अतृप्ति की अग्नि प्रज्जवलित होने पर सांसारिक माया-मोह ज्वलंत बन जाता है। प्रेम आत्मा की दिव्यानुभूति एवं विशिष्ट अभिव्यक्ति है। प्रेम में हित कामना सन्निहित रहती है, किन्तु मोह में सवार्थपरता, संकीर्णता पनपती है, जिससे कल्याण एवं परमार्थ छूट जाता है। प्रेम की ज्योति, सामान्य दीपक की ज्योति नहीं हैं, जिसमें अनुताप हो, अपितु यह दिव्य चिन्तामणि की ही शीतल ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण प्रकाशित होते हैं। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में जो भी आते हैं, उन्हें निर्मलता व शीतलता का आभास होता है।



      इसका अंकुरण निकट परिकर से होता है और विकसित, पल्लवित, पुष्पित होते हुए, उसकी शाखाएं-प्रशाखाएं समस्त विश्व में दृष्टिगोचर होती है। प्रेम तो गंगाजल की तरह पवित्र व निश्छल है, जिसे जहां भी डाला जाये, पवित्रता का ही उद्धगम होता है। उसमें आदर्शों की आवश्यकता जुड़ी रहती है। विवेकशीलता, सहृदयता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुण इसमें निहित रहते हैं। प्रेमी उन गुणों के अभिवर्द्धन के लिये आजन्म सतत प्रयत्नशील रहता है। भाव एवं संवेदनायें नित्य-निरंतर उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति समर्पित रहे, यही प्रेम है, इसे सीमा की संकीर्ण दीवारों में आवद्ध नहीं किया जा सकता। जहां प्रेम होता है, वहां जीवनशैली उत्कृष्ट एवं परिष्कृत होती चली जाती है, वह व्यक्ति देश, धर्म, संस्कृति और मानव जाति की सेवा-सुश्रुषा-साधना में निरत होता जाता है। जीवन के उत्कृष्टतम रूप की अभिव्यक्ति इसी के माध्यम से होती है। परम सत्ता के प्रति इस प्रकार की घनिष्ठता से स्वतः ही वह क्षुद्र से महान, लघु से विभु, पुरूष से पुरूषौत्तम में परिवर्द्धित हो जाता है। प्रेम की इस दिव्यता के जीवन में अवतरित होने पर भावनाएं उमड़ने लगती हैं। इस स्थिति में, अंतराल की त्रिवेणी बहती है, जिसमें से सर्वत्र दिव्यानुभूति प्राप्त होती है।

इसमें सारे गुण स्वतः ही समाएं रहते हैं व समस्त गुण विलीन होकर निर्गुणत्व पा लेते हैं। यही परमतत्व है। इसी का बोध होने से ज्ञान की सार्थकता प्रज्जवलित होती है। संत कवीर की वाणी है, ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होई। ढाई अक्षरों में निहित प्रेम के तात्विक बोध को प्राप्त कर लेने में ही पांडित्य की सार्थकता है। आत्मीयता के विस्तृत बोध व सतत प्रयत्नशीलता की पूर्णता में ही ईश्वर विद्यमान रहता है।

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