Ramdhari Gupta Khand 2 Dictation #02 [ 90 WPM ] [ REPUBLIC STENOGRAPHY ]
Hindi Translation
👇👇
प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई // मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, // उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा // तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार // होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु // एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद // या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और // मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता // की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता // की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी // शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस // उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में // गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और // अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का // भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु // एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का // प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
[ -- Ramdhari Khand 2 Dictation #02 -- ]
70 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, जो एक के बाद एक आते हैं, शारीरिक आवश्यकताएं, यथा भोजन, कपड़ा, मकान और आराम जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं। दूसरे स्तर पर आती हैं सुरक्षा और भविष्य के प्रति निश्चिंतता। इसके लिए मनुष्य भांति-भांति की वस्तुओं का संग्रह करता है। फिर हैं सामाजिक आवश्यकताएं, जैसे अपने परिवार के भीतर और फिर बाहर के दूसरे लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोरंजनात्मक संगठन // बनाना। चौथे स्तर पर हैं अहम् संबंधी आवश्यकताएं जैसे आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, और आत्म-तुष्टि आदि। आत्म-परितोष अर्थात् उन्नति, विकास और ख्याति-प्राप्ति की क्षमताओं को साकार करना व्यक्ति की अंतिम और उच्चतम अपेक्षाएं हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने आसपास उपलब्ध पर्यावरण का दोहन करता है। जल-थल-वायु ही नहीं पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं तक का उपयोग करता है। सभी शक्तियों का यहां तक कि सबल व्यक्ति अपने से निर्बल व्यक्तियों // तक का दोहन करता है, जो शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है। इसके लिए भांति-भांति की तकनीकें खोजी और अपनाई जाती हैं।प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई // मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, // उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा // तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार // होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
80 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, जो एक के बाद एक आते हैं, शारीरिक आवश्यकताएं, यथा भोजन, कपड़ा, मकान और आराम जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं। दूसरे स्तर पर आती हैं सुरक्षा और भविष्य के प्रति निश्चिंतता। इसके लिए मनुष्य भांति-भांति की वस्तुओं का संग्रह करता है। फिर हैं सामाजिक आवश्यकताएं, जैसे अपने परिवार के भीतर और फिर बाहर के दूसरे लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोरंजनात्मक संगठन बनाना। चौथे स्तर पर हैं अहम् संबंधी आवश्यकताएं जैसे आत्म-सम्मान, // आत्म-विश्वास, और आत्म-तुष्टि आदि। आत्म-परितोष अर्थात् उन्नति, विकास और ख्याति-प्राप्ति की क्षमताओं को साकार करना व्यक्ति की अंतिम और उच्चतम अपेक्षाएं हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने आसपास उपलब्ध पर्यावरण का दोहन करता है। जल-थल-वायु ही नहीं पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं तक का उपयोग करता है। सभी शक्तियों का यहां तक कि सबल व्यक्ति अपने से निर्बल व्यक्तियों तक का दोहन करता है, जो शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है। इसके लिए भांति-भांति की तकनीकें खोजी और // अपनाई जाती हैं।प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु // एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद // या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और // मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
90 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, जो एक के बाद एक आते हैं, शारीरिक आवश्यकताएं, यथा भोजन, कपड़ा, मकान और आराम जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं। दूसरे स्तर पर आती हैं सुरक्षा और भविष्य के प्रति निश्चिंतता। इसके लिए मनुष्य भांति-भांति की वस्तुओं का संग्रह करता है। फिर हैं सामाजिक आवश्यकताएं, जैसे अपने परिवार के भीतर और फिर बाहर के दूसरे लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोरंजनात्मक संगठन बनाना। चौथे स्तर पर हैं अहम् संबंधी आवश्यकताएं जैसे आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, और आत्म-तुष्टि आदि। आत्म-परितोष अर्थात् उन्नति, विकास और ख्याति-प्राप्ति // की क्षमताओं को साकार करना व्यक्ति की अंतिम और उच्चतम अपेक्षाएं हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने आसपास उपलब्ध पर्यावरण का दोहन करता है। जल-थल-वायु ही नहीं पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं तक का उपयोग करता है। सभी शक्तियों का यहां तक कि सबल व्यक्ति अपने से निर्बल व्यक्तियों तक का दोहन करता है, जो शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है। इसके लिए भांति-भांति की तकनीकें खोजी और अपनाई जाती हैं।प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता // की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता // की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी // शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस // उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
100 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, जो एक के बाद एक आते हैं, शारीरिक आवश्यकताएं, यथा भोजन, कपड़ा, मकान और आराम जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं। दूसरे स्तर पर आती हैं सुरक्षा और भविष्य के प्रति निश्चिंतता। इसके लिए मनुष्य भांति-भांति की वस्तुओं का संग्रह करता है। फिर हैं सामाजिक आवश्यकताएं, जैसे अपने परिवार के भीतर और फिर बाहर के दूसरे लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोरंजनात्मक संगठन बनाना। चौथे स्तर पर हैं अहम् संबंधी आवश्यकताएं जैसे आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, और आत्म-तुष्टि आदि। आत्म-परितोष अर्थात् उन्नति, विकास और ख्याति-प्राप्ति की क्षमताओं को साकार करना व्यक्ति की अंतिम और उच्चतम // अपेक्षाएं हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने आसपास उपलब्ध पर्यावरण का दोहन करता है। जल-थल-वायु ही नहीं पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं तक का उपयोग करता है। सभी शक्तियों का यहां तक कि सबल व्यक्ति अपने से निर्बल व्यक्तियों तक का दोहन करता है, जो शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है। इसके लिए भांति-भांति की तकनीकें खोजी और अपनाई जाती हैं।प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में // गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और // अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का // भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
120 शब्द प्रतिमिनट
महोदय, जो एक के बाद एक आते हैं, शारीरिक आवश्यकताएं, यथा भोजन, कपड़ा, मकान और आराम जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं। दूसरे स्तर पर आती हैं सुरक्षा और भविष्य के प्रति निश्चिंतता। इसके लिए मनुष्य भांति-भांति की वस्तुओं का संग्रह करता है। फिर हैं सामाजिक आवश्यकताएं, जैसे अपने परिवार के भीतर और फिर बाहर के दूसरे लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोरंजनात्मक संगठन बनाना। चौथे स्तर पर हैं अहम् संबंधी आवश्यकताएं जैसे आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, और आत्म-तुष्टि आदि। आत्म-परितोष अर्थात् उन्नति, विकास और ख्याति-प्राप्ति की क्षमताओं को साकार करना व्यक्ति की अंतिम और उच्चतम अपेक्षाएं हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने आसपास उपलब्ध पर्यावरण का दोहन करता है। जल-थल-वायु ही नहीं // पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं तक का उपयोग करता है। सभी शक्तियों का यहां तक कि सबल व्यक्ति अपने से निर्बल व्यक्तियों तक का दोहन करता है, जो शोषण की सीमा तक पहुंच जाता है। इसके लिए भांति-भांति की तकनीकें खोजी और अपनाई जाती हैं।प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को भांति-भांति की आवश्यकता की वस्तुएं अभूतपूर्व प्रचुरता से देकर संतुष्ट किया है और आवश्यकता की सीमा-रेखा भी खिसकाई है। विलासिता और सजावट की ऐसी सामग्री भी दी है जो अब बहुत-कुछ आवश्यकताओं में गिनी जाने लगी है। स्वचल वाहन, दूरदर्शन, धुलाई मशीन, सफाई मशीन, सिलाई मशीन, स्टोव-चूल्हे, मिक्सी, फ्रिज आदि-आदि अब बहुत-से लोगों के लिए अनिवार्य आवश्यकता की कोटि में आ गई है। तकनीकी और औद्योगिकी से यह सब संभव हुआ है। किंतु // एक ऐसा अल्प वर्ग भी है जिसके लिए विलासिता आवश्यकता की कोटि में आ चुकी है। विज्ञान की जन-समुदाय के लिए तो मौलिक न्यूनतम आवश्यकताएं भी विलासिता ही बनी हुई हैं। औद्योगीकरण के सहारे मनुष्य ने जितना भी विकास किया है, उसे वह उन्नति कहकर संतोष करने लगता है और अपनी द्वैध प्रकृति के कारण यह ध्यान नहीं देता कि इस विकास से वर्गभेद पनपा है, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। जो व्यक्ति मानव-मानव की समानता, समाजवाद या साम्यवाद के गीत गाता है वही अपनी द्वैध प्रकृति के कारण अपने पर्यावरण यहां तक कि मानव के भी शोषण के नए-नए तरीके खोजता है। यह शोषण बलात्कार की सीमा तक पहुंच जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का // प्रयोग किया। फलस्वरूप भांति-भांति का औद्योगीकरण हुआ, और जल, थल, वायु, सब प्रदूषण के शिकार हो गए। जितना ही अधिक विकास हुआ उतना ही अधिक विनाश हुआ। प्राकृतिक संपदा का भीषण हास हुआ। व्यापक वन-विनाश से भूमि बंजर और मरुस्थल बन गई। एक बड़ा हवाई जहाज एक दिन में जितनी ऑक्सीजन खर्च करता है उतनी आक्सीजन 17000 हेक्टेयर वन में तैयार होती है, और वन बचे ही कितने हैं। इस उद्योग-प्रधान सभ्यता का केंद्र पूंजी है और धर्म स्वार्थ है। मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, देश-देश का।
Subscribe Our YouTube channel For More Videos.
👇👇
OR
OR
"REPUBLIC STENOGRAPHY"
Hello Friends. If you want a great success and stay Updated join Our Education Platform for Inspire for Creating a Best Steno Dictations and Outlines that helps You To Achieve Your Gols in Life.
YOUTUBE
FACEBOOK PAGE
TELEGRAM
👇👇
👇👇
( republicsteno. blogspot. com )
Stay Updated.
From - RAJAT SONI
NOTE ::--:: If you have any suggestions then you can write in the comment box below. We will try to bring it in our next video. Your exprience is very useful for us, Please put your thoughts in the comment box below. Thankyou.
REPUBLIC STENOGRAPHY Hindi steno Dictation And Outlines. New Paper steno Dictation, Rajasthan High Court Dictation And Others. Hindi Steno Dictations.



0 Comments
Write What You Need, We Tray to Help You.