Ramdhari Gupta Khand 2 Dictation #01 [ 80 WPM ]

Ramdhari Gupta Khand 2 Dictation #01 [ 80 WPM ] [ REPUBLIC STENOGRAPHY ]




Hindi Translation
👇👇


 [ --   Ramdhari Khand 2 Dictation #01  -- ]


      70 शब्द प्रतिमिनट

महोदय, पर्यावरण से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति के परिवेश से नहीं, वरन् व्यक्ति के, समाज के, राष्ट्र के और इस सारी पृथ्वी के ही परिवेश से है जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सारे विश्व पर पड़ता है। पर्यावरण से तात्पर्य पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ या किसी तंत्र विशेष से नहीं, वरन् उस समग्र वास्तविकता से है जिस पर मानव-मात्र का अस्तित्व और उसका संपूर्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास निर्भर है। अस्तित्व // केवल शारीरिक स्वास्थय ही नहीं मानसिक भी। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन ही अच्छे स्वास्थ्य की परिभाषा है। शारीरिक स्वास्थ्य हमारे आहार पर निर्भर है जिसका स्रोत इस पृथ्वी का जल-थल वायुमंडल है। मानसिक स्वास्थ्य भी प्रकारांतर से इन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि जैसा खाए अन्न वैसा बने मन। स्वस्थ जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे चिंतन का, हमारी परंपराओं का और उन सब परिस्थितियों का पड़ता है जो हमारे उपर आरोपित हैं या की गई हैं, या की जा // रही है। इसलिए पर्यावरण या परिवेश में जल-थल-वायु ही नहीं, बल्कि वे सारे घटक महत्वपूर्ण हैं जिनका कुछ भी प्रभाव हमारे जीवन पर, हमारी क्रियाशीलता पर पड़ता है, जैसे हमारे विचार, हमारे आचरण और हमारी परंपराएं एवं संस्कृति आदि। 

सदा से मानव की आकांक्षा उन्नति और विकास की रही है। जगत का अर्थ ही है गतिमान और गति दोनों ओर संभव है, उन्नति की ओर भी और अवनति की ओर भी। पहली को हम प्रगति कहते हैं, दूसरी को अगति, // विगति, अधोगति या दुर्गति कह सकते हैं। वास्तव में मनुष्य ऐसा जटिल प्राणी है जिसमें अनेक विरोधाभासी और असंगत प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियां और प्रतिक्रियाएं होती हैं। वह कानून और व्यवस्था की मांग करता है, किंतु चल-चित्र, दूरदर्शन आदि में स्वतः भड़की हिंसा या खेलों में युक्तिपूर्वक की गई हिंसा अथवा अनीति से मंत्र-मुग्ध भी हो जाता है। मनुष्य अपनी ही जाति या वर्ग के व्यक्तियों के प्रति प्रायः बहुत अधिक प्रतिद्वंद्वी होता है, किंतु कोई बाहरी खतरा उपस्थित होने // पर उनके प्रति हद से ज्यादा सहयोगी बन जाता है। वह सड़कों पर या युद्धों में सामूहिक विनाश के प्रति उदासीन रहता है, किंतु किसी खान में फंसे हुए एक व्यक्ति या किसी कुएं में गिरे हुए एक बालक की रक्षा करने के लिए ढेरों साधन जुटा लेता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि मनुष्य बंदर की संतान हो या न हो, किंतु उसमें खालिस बंदर की द्वैध प्रकृति प्रायः ही होती है - उसमें शाकाहारी बंदरों की स्वाभाविक जिज्ञासा // भी होती है जो अत्यंत संगठित गिरोहों में रहते हैं और भांति-भांति का मांस खाने में मजा लेते हैं। मनुष्य की ऐसी परस्पर विरोधी इच्छा-आकांक्षाओं से निपटना असंभव होता है, फिर भी किसी प्रकार का संतुलित मध्यम मार्ग अपनाना अनिवार्य होता है। यही बुद्धिमानी का रास्ता है। विद्वानों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पांच स्तरों में रखा हैं।



80 शब्द प्रतिमिनट

महोदय, पर्यावरण से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति के परिवेश से नहीं, वरन् व्यक्ति के, समाज के, राष्ट्र के और इस सारी पृथ्वी के ही परिवेश से है जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सारे विश्व पर पड़ता है। पर्यावरण से तात्पर्य पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ या किसी तंत्र विशेष से नहीं, वरन् उस समग्र वास्तविकता से है जिस पर मानव-मात्र का अस्तित्व और उसका संपूर्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास निर्भर है। अस्तित्व केवल शारीरिक स्वास्थय ही नहीं मानसिक भी। स्वस्थ शरीर में // स्वस्थ मन ही अच्छे स्वास्थ्य की परिभाषा है। शारीरिक स्वास्थ्य हमारे आहार पर निर्भर है जिसका स्रोत इस पृथ्वी का जल-थल वायुमंडल है। मानसिक स्वास्थ्य भी प्रकारांतर से इन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि जैसा खाए अन्न वैसा बने मन। स्वस्थ जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे चिंतन का, हमारी परंपराओं का और उन सब परिस्थितियों का पड़ता है जो हमारे उपर आरोपित हैं या की गई हैं, या की जा रही है। इसलिए पर्यावरण या परिवेश में जल-थल-वायु ही नहीं, // बल्कि वे सारे घटक महत्वपूर्ण हैं जिनका कुछ भी प्रभाव हमारे जीवन पर, हमारी क्रियाशीलता पर पड़ता है, जैसे हमारे विचार, हमारे आचरण और हमारी परंपराएं एवं संस्कृति आदि। 

सदा से मानव की आकांक्षा उन्नति और विकास की रही है। जगत का अर्थ ही है गतिमान और गति दोनों ओर संभव है, उन्नति की ओर भी और अवनति की ओर भी। पहली को हम प्रगति कहते हैं, दूसरी को अगति, विगति, अधोगति या दुर्गति कह सकते हैं। वास्तव में मनुष्य // ऐसा जटिल प्राणी है जिसमें अनेक विरोधाभासी और असंगत प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियां और प्रतिक्रियाएं होती हैं। वह कानून और व्यवस्था की मांग करता है, किंतु चल-चित्र, दूरदर्शन आदि में स्वतः भड़की हिंसा या खेलों में युक्तिपूर्वक की गई हिंसा अथवा अनीति से मंत्र-मुग्ध भी हो जाता है। मनुष्य अपनी ही जाति या वर्ग के व्यक्तियों के प्रति प्रायः बहुत अधिक प्रतिद्वंद्वी होता है, किंतु कोई बाहरी खतरा उपस्थित होने पर उनके प्रति हद से ज्यादा सहयोगी बन जाता है। // वह सड़कों पर या युद्धों में सामूहिक विनाश के प्रति उदासीन रहता है, किंतु किसी खान में फंसे हुए एक व्यक्ति या किसी कुएं में गिरे हुए एक बालक की रक्षा करने के लिए ढेरों साधन जुटा लेता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि मनुष्य बंदर की संतान हो या न हो, किंतु उसमें खालिस बंदर की द्वैध प्रकृति प्रायः ही होती है - उसमें शाकाहारी बंदरों की स्वाभाविक जिज्ञासा भी होती है जो अत्यंत संगठित गिरोहों में रहते हैं // और भांति-भांति का मांस खाने में मजा लेते हैं। मनुष्य की ऐसी परस्पर विरोधी इच्छा-आकांक्षाओं से निपटना असंभव होता है, फिर भी किसी प्रकार का संतुलित मध्यम मार्ग अपनाना अनिवार्य होता है। यही बुद्धिमानी का रास्ता है। विद्वानों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पांच स्तरों में रखा हैं।




     90 शब्द प्रतिमिनट


महोदय, पर्यावरण से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति के परिवेश से नहीं, वरन् व्यक्ति के, समाज के, राष्ट्र के और इस सारी पृथ्वी के ही परिवेश से है जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सारे विश्व पर पड़ता है। पर्यावरण से तात्पर्य पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ या किसी तंत्र विशेष से नहीं, वरन् उस समग्र वास्तविकता से है जिस पर मानव-मात्र का अस्तित्व और उसका संपूर्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास निर्भर है। अस्तित्व केवल शारीरिक स्वास्थय ही नहीं मानसिक भी। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन ही अच्छे स्वास्थ्य की परिभाषा है। शारीरिक स्वास्थ्य // हमारे आहार पर निर्भर है जिसका स्रोत इस पृथ्वी का जल-थल वायुमंडल है। मानसिक स्वास्थ्य भी प्रकारांतर से इन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि जैसा खाए अन्न वैसा बने मन। स्वस्थ जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे चिंतन का, हमारी परंपराओं का और उन सब परिस्थितियों का पड़ता है जो हमारे उपर आरोपित हैं या की गई हैं, या की जा रही है। इसलिए पर्यावरण या परिवेश में जल-थल-वायु ही नहीं, बल्कि वे सारे घटक महत्वपूर्ण हैं जिनका कुछ भी प्रभाव // हमारे जीवन पर, हमारी क्रियाशीलता पर पड़ता है, जैसे हमारे विचार, हमारे आचरण और हमारी परंपराएं एवं संस्कृति आदि। 

सदा से मानव की आकांक्षा उन्नति और विकास की रही है। जगत का अर्थ ही है गतिमान और गति दोनों ओर संभव है, उन्नति की ओर भी और अवनति की ओर भी। पहली को हम प्रगति कहते हैं, दूसरी को अगति, विगति, अधोगति या दुर्गति कह सकते हैं। वास्तव में मनुष्य ऐसा जटिल प्राणी है जिसमें अनेक विरोधाभासी और असंगत प्रतीत // होने वाली प्रवृत्तियां और प्रतिक्रियाएं होती हैं। वह कानून और व्यवस्था की मांग करता है, किंतु चल-चित्र, दूरदर्शन आदि में स्वतः भड़की हिंसा या खेलों में युक्तिपूर्वक की गई हिंसा अथवा अनीति से मंत्र-मुग्ध भी हो जाता है। मनुष्य अपनी ही जाति या वर्ग के व्यक्तियों के प्रति प्रायः बहुत अधिक प्रतिद्वंद्वी होता है, किंतु कोई बाहरी खतरा उपस्थित होने पर उनके प्रति हद से ज्यादा सहयोगी बन जाता है। वह सड़कों पर या युद्धों में सामूहिक विनाश के प्रति // उदासीन रहता है, किंतु किसी खान में फंसे हुए एक व्यक्ति या किसी कुएं में गिरे हुए एक बालक की रक्षा करने के लिए ढेरों साधन जुटा लेता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि मनुष्य बंदर की संतान हो या न हो, किंतु उसमें खालिस बंदर की द्वैध प्रकृति प्रायः ही होती है - उसमें शाकाहारी बंदरों की स्वाभाविक जिज्ञासा भी होती है जो अत्यंत संगठित गिरोहों में रहते हैं और भांति-भांति का मांस खाने में मजा लेते हैं। मनुष्य की ऐसी परस्पर विरोधी इच्छा-आकांक्षाओं से निपटना असंभव होता है, // फिर भी किसी प्रकार का संतुलित मध्यम मार्ग अपनाना अनिवार्य होता है। यही बुद्धिमानी का रास्ता है। विद्वानों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पांच स्तरों में रखा हैं।



100 शब्द प्रतिमिनट

महोदय, पर्यावरण से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति के परिवेश से नहीं, वरन् व्यक्ति के, समाज के, राष्ट्र के और इस सारी पृथ्वी के ही परिवेश से है जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सारे विश्व पर पड़ता है। पर्यावरण से तात्पर्य पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ या किसी तंत्र विशेष से नहीं, वरन् उस समग्र वास्तविकता से है जिस पर मानव-मात्र का अस्तित्व और उसका संपूर्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास निर्भर है। अस्तित्व केवल शारीरिक स्वास्थय ही नहीं मानसिक भी। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन ही अच्छे स्वास्थ्य की परिभाषा है। शारीरिक स्वास्थ्य हमारे आहार पर निर्भर है जिसका स्रोत इस पृथ्वी का // जल-थल वायुमंडल है। मानसिक स्वास्थ्य भी प्रकारांतर से इन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि जैसा खाए अन्न वैसा बने मन। स्वस्थ जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे चिंतन का, हमारी परंपराओं का और उन सब परिस्थितियों का पड़ता है जो हमारे उपर आरोपित हैं या की गई हैं, या की जा रही है। इसलिए पर्यावरण या परिवेश में जल-थल-वायु ही नहीं, बल्कि वे सारे घटक महत्वपूर्ण हैं जिनका कुछ भी प्रभाव हमारे जीवन पर, हमारी क्रियाशीलता पर पड़ता है, जैसे हमारे // विचार, हमारे आचरण और हमारी परंपराएं एवं संस्कृति आदि। 

सदा से मानव की आकांक्षा उन्नति और विकास की रही है। जगत का अर्थ ही है गतिमान और गति दोनों ओर संभव है, उन्नति की ओर भी और अवनति की ओर भी। पहली को हम प्रगति कहते हैं, दूसरी को अगति, विगति, अधोगति या दुर्गति कह सकते हैं। वास्तव में मनुष्य ऐसा जटिल प्राणी है जिसमें अनेक विरोधाभासी और असंगत प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियां और प्रतिक्रियाएं होती हैं। वह कानून // और व्यवस्था की मांग करता है, किंतु चल-चित्र, दूरदर्शन आदि में स्वतः भड़की हिंसा या खेलों में युक्तिपूर्वक की गई हिंसा अथवा अनीति से मंत्र-मुग्ध भी हो जाता है। मनुष्य अपनी ही जाति या वर्ग के व्यक्तियों के प्रति प्रायः बहुत अधिक प्रतिद्वंद्वी होता है, किंतु कोई बाहरी खतरा उपस्थित होने पर उनके प्रति हद से ज्यादा सहयोगी बन जाता है। वह सड़कों पर या युद्धों में सामूहिक विनाश के प्रति उदासीन रहता है, किंतु किसी खान में फंसे हुए एक // व्यक्ति या किसी कुएं में गिरे हुए एक बालक की रक्षा करने के लिए ढेरों साधन जुटा लेता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि मनुष्य बंदर की संतान हो या न हो, किंतु उसमें खालिस बंदर की द्वैध प्रकृति प्रायः ही होती है - उसमें शाकाहारी बंदरों की स्वाभाविक जिज्ञासा भी होती है जो अत्यंत संगठित गिरोहों में रहते हैं और भांति-भांति का मांस खाने में मजा लेते हैं। मनुष्य की ऐसी परस्पर विरोधी इच्छा-आकांक्षाओं से निपटना असंभव होता है, फिर भी किसी प्रकार का संतुलित मध्यम मार्ग अपनाना अनिवार्य // होता है। यही बुद्धिमानी का रास्ता है। विद्वानों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पांच स्तरों में रखा हैं।



120 शब्द प्रतिमिनट

महोदय, पर्यावरण से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति के परिवेश से नहीं, वरन् व्यक्ति के, समाज के, राष्ट्र के और इस सारी पृथ्वी के ही परिवेश से है जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सारे विश्व पर पड़ता है। पर्यावरण से तात्पर्य पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ या किसी तंत्र विशेष से नहीं, वरन् उस समग्र वास्तविकता से है जिस पर मानव-मात्र का अस्तित्व और उसका संपूर्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास निर्भर है। अस्तित्व केवल शारीरिक स्वास्थय ही नहीं मानसिक भी। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन ही अच्छे स्वास्थ्य की परिभाषा है। शारीरिक स्वास्थ्य हमारे आहार पर निर्भर है जिसका स्रोत इस पृथ्वी का जल-थल वायुमंडल है। मानसिक स्वास्थ्य भी प्रकारांतर से इन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि जैसा खाए अन्न वैसा बने मन। स्वस्थ // जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे चिंतन का, हमारी परंपराओं का और उन सब परिस्थितियों का पड़ता है जो हमारे उपर आरोपित हैं या की गई हैं, या की जा रही है। इसलिए पर्यावरण या परिवेश में जल-थल-वायु ही नहीं, बल्कि वे सारे घटक महत्वपूर्ण हैं जिनका कुछ भी प्रभाव हमारे जीवन पर, हमारी क्रियाशीलता पर पड़ता है, जैसे हमारे विचार, हमारे आचरण और हमारी परंपराएं एवं संस्कृति आदि। 

सदा से मानव की आकांक्षा उन्नति और विकास की रही है। // जगत का अर्थ ही है गतिमान और गति दोनों ओर संभव है, उन्नति की ओर भी और अवनति की ओर भी। पहली को हम प्रगति कहते हैं, दूसरी को अगति, विगति, अधोगति या दुर्गति कह सकते हैं। वास्तव में मनुष्य ऐसा जटिल प्राणी है जिसमें अनेक विरोधाभासी और असंगत प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियां और प्रतिक्रियाएं होती हैं। वह कानून और व्यवस्था की मांग करता है, किंतु चल-चित्र, दूरदर्शन आदि में स्वतः भड़की हिंसा या खेलों में युक्तिपूर्वक की गई // हिंसा अथवा अनीति से मंत्र-मुग्ध भी हो जाता है। मनुष्य अपनी ही जाति या वर्ग के व्यक्तियों के प्रति प्रायः बहुत अधिक प्रतिद्वंद्वी होता है, किंतु कोई बाहरी खतरा उपस्थित होने पर उनके प्रति हद से ज्यादा सहयोगी बन जाता है। वह सड़कों पर या युद्धों में सामूहिक विनाश के प्रति उदासीन रहता है, किंतु किसी खान में फंसे हुए एक व्यक्ति या किसी कुएं में गिरे हुए एक बालक की रक्षा करने के लिए ढेरों साधन जुटा लेता है। कुछ // विद्वान कहते हैं कि मनुष्य बंदर की संतान हो या न हो, किंतु उसमें खालिस बंदर की द्वैध प्रकृति प्रायः ही होती है - उसमें शाकाहारी बंदरों की स्वाभाविक जिज्ञासा भी होती है जो अत्यंत संगठित गिरोहों में रहते हैं और भांति-भांति का मांस खाने में मजा लेते हैं। मनुष्य की ऐसी परस्पर विरोधी इच्छा-आकांक्षाओं से निपटना असंभव होता है, फिर भी किसी प्रकार का संतुलित मध्यम मार्ग अपनाना अनिवार्य होता है। यही बुद्धिमानी का रास्ता है। विद्वानों ने मानव की मूलभूत आवश्यकताओं को पांच स्तरों में रखा हैं। //


Republic Stenography by Raja Soni

Subscribe Our YouTube channel For More Videos.

👇👇

 REPUBLIC STENOGRAPHY

OR

"REPUBLIC STENOGRAPHY"
Hello Friends. If you want a great success and stay Updated join Our Education Platform for Inspire for Creating a Best Steno Dictations and Outlines that helps You To Achieve Your Gols in Life.

YOUTUBE 


FACEBOOK PAGE 

TELEGRAM 
👇👇

👇👇
( republicsteno. blogspot. com )

Stay Updated.
From - RAJAT SONI



NOTE ::--::  If  you have any suggestions then you can write in the comment box below. We will try to bring it in our next video. Your exprience is very useful for us, Please put your thoughts in the comment box below. Thankyou.

REPUBLIC STENOGRAPHY Hindi steno Dictation And Outlines. New Paper steno Dictation, Rajasthan High Court Dictation And Others. Hindi Steno Dictations.
Reactions

Post a Comment

0 Comments